Paramparik Khana

पहाड़

जब भी संस्कृति शब्द मन में आता है, कितने विचार बनने लगते हैं। संस्कृति को बनने-संवरने में जमाने लग जाते हैं। संस्कृति कभी नहीं बिगड़ती परम्परा और संस्कृति में भी बड़ा अंतर है, परम्पराओं में से अच्छी-अच्छी बातें निकल कर संस्कृति बनती है, लोक संस्कृति अन्तस में रची-बसी होती है। परम्पराएं बनती बिगड़ती रहती हैं। संस्कृति में कुछ भी बुरा नहीं है, लेकिन परम्परा में बुराई देखी जा सकती है। भाषा-बोली, विचार, व्यवहार, भोजन और धर्म-सम्प्रदाय ये सभी कुछ संस्कृति के ही हिस्से हैं। जन्म से लेकर मरण तक के सब काम लोक में ही होते हैं। और यहाँ यह खाश बात है की जो उसको बिना लिखे पढ़े एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुंचाती हैं। ये ऐसी चीजें है जो दादा के परदादा ने हमारे परदादा को सिखाया। यहां सीखना किसी कक्षा में नहीं हुआ। इसको तो उन्होंने जीवन पर्यन्त ही सीखा पहाड़ की अपनी एक भोजन संस्कृति रही है। इसी भोजन संस्कृति के बलबूते पर पहाड़ के लोगों ने अपने मुश्किल सफर को आसान किया है और इस भोजन को खाकर ताकत पाई और पहाड़ चढ़े हैं। सामूहिक भोज बनाने की प्रतिकात्मक तस्वीर गहत (कुलथ) के डुबके

डुबके, चैंस, चुड़कानी

डुबुक, चैंस, बड़ी- मुंगोंडी, काप, चुडकानी कुछ ऐसी ही डिशेज हैं, जो भात के साथ खाई जाती हैं। भात का अर्थ चावल से है। पहाड़ों में दाल गाढ़ी नहीं बनती है। उसमें रस हमेशा ज्यादा होता है। रस-भात ऐसी ही एक डिश है। डुबुक में दाल को भिगा कर, पीसकर बनाया जाता है । चैंस में दाल को सिलबट्टे पर दल लेते हैं फिर कढ़ाई में थोड़ा तेल में भून लेते हैं। फिर कढ़ाई में पकाते हैं। पहाड़ी नींबू की खटाई।

सना सलाद

जाड़ों में ठण्ड के बावजूद खट्टे फलों के सेवन। जाड़ों में त्वचा सूख जाती है और खट्टे फल त्वचा के लिए अच्छे माने जाते हैं। तो शुरू होता है नींबू, माल्टे और संतरा को दही, भांग के भुने बीजों को पीस कर बनाया नमक, गुड़, शहद और केला डालकर बनाई गई एक विशेष डिश जो सिर्फ उत्तराखण्ड के हिमालयी क्षेत्र में खाने को मिलती है। यह अकेले नहीं बनता, बल्कि समुदाय में बनता है, भांग के बीजों की चटनी और पराठा ।

भांग की चटनी

इस चटनी को बनाने के लिए भांग के बीजों को मध्यम आंच पर भून लेते हैं फिर ठण्डा करके पुदीना, हरा धनिया और मिर्च के साथ पीस लेते हैं। इसके बाद इसमें नींबू निचोड़ लेते हैं, जिससे चटनी खट्टी हो जाए। कुछ लोग फ्लेवर के लिए चीनी भी मिलाते हैं, जिससे यह हल्का खट्टे-मीठे का स्वाद देती है। इसे रोटी, दाल-चावल और पराठों के साथ खाया जा सकता है।वैसे चटनी यहां हमेशा से सब्जी का विकल्प रही है। जिन दिनों सब्जियों का अकाल हुआ तो चटनी के साथ ही रोटी खा ली जाती थी।

पहाड़ी पीला रायता

हल्दी इसमें मिलाई जाती है बारीक राई जो तासीर में गर्म मानी जाती है, दही और खीरे की ठंडी तासीर को पहाड़ों के हिसाब से गरमा देती है।

आलू के गुटके

आलू के गुटकों की बात आती है तो कई बार लोग इनको सब्जी कह देते हैं, लेकिन ये पहाड़ के लोगों के लिए हमेशा से एक बढ़िया स्नैक्स रहा है जलवायु हमको खाने और पहनने के नियम देती है। आलू के गुटके, आलू तरी, आलू दही डाली जम्बू से छौंकी सब्जी वाह! आलू के गुटकों के ऊपर ककड़ी का पीला रायता क्या स्वाद देता है! भुट्टे का चीला (चिलोड़)

चीला का स्वाद

भुट्टे का चीला (चिलोड़) उसके ऊपर भांग की चटनी रखकर खाना अपने आप में एक अनुपम अनुभव है। भुट्टे के बीज निकालकर उनको पीसकर करके तवे पर तेल रखकर फैला लेते हैं चीला आटे से भी तैयार होता है जिसको छोली रोटी कहते हैं। यह मीठा होता है कुछ लोग अलग स्वाद के लिए इसे नमकीन भी बनाते हैं।

और अंत में कुछ मीठा हो जाए

हम मकरसंक्रांति के मौके पर बनने वाले घुघुतों कि बात करें या अरसों कि बात करें। सामान्य सा मीठा पड़ता है और तेल में तल लिया जाता है। ये आटे से ही बनते हैं। कई मौकों पर बनने वाली गुड की लपसी जो दूध और आटे को मिला कर बनती है।इस लपसी में पुआ डुबो के खाने में और ही मजा आता है। चावल का साई, जो चावल को भिगा के पीस कर बनता है। यह एक तरह का हलवा ही है, जो बहुत मीठा नहीं होता, लेकिन खाने में बहुत स्वाद होता है। विशेष त्योहारों पर सिंगल नाम की एक मीठी डिश बनती है, जो सूजी, आटा, चीनी को दही में भिगा कर बनती है। इनको फिर घी में तल लेते हैं। इसको बनाने के लिए कहते हैं बहुत सधे हुए हाथों की जरूरत होती है

च्‍यूड़ा

पहाड़ की खेती का असली स्‍वाद धान को भूनने, गरमा-गरम ओखली तक पहुंचाने और फिर मूसल से उसको कूटने की पूरी प्रक्रिया किसी लयबद्ध कविता की तरह होती है। इसमें शोर के बजाय संगीत उपजता है। ऐसा संगीत जिसको महसूस किया जा सकता है च्यूड़ा कूटे जाने के बाद कुछ हिस्से को सूप में साफ किया जाता है। इस दौरान इसमें से छुट-पुट रह गई साबुत धान को भी बीनकर अलग किया जाता है। च्यूड़े में अखरोट, तिल को मिलाकर खाया जाता है।

पहाड़ में छानियां और उनका लोक महत्व

खेती किसानी किसी बच्चे की परवरिश करने जैसा कर्म है। पीढ़ी-दर-पीढ़ी इसकी समझ और बेहतर होती जाती है। खेत को हल से लेकर निराई-गुड़ाई और कटाई कब करनी है, इससे जुड़ी छोटी से छोटी बात को समझना और उसके लिए पूरी तैयारी करना ही खेती किसानी का सार है। बात जब पहाड़ की खेती की हो तो इसको करने की चुनौतियां और बढ़ जाती हैं। पहाड़ में खेती का छितरा होना और जोतों को छोटा होना आम बात है। पहाड़ में जहां-जहां खेत बनने की गुंजाइश थी वहां-वहां खेतों को बनाने की वजह से शायद ऐसा रहा है। सिंचित खेती तो ज्यादातर नदी के किनारों पर हुआ करती है। गर्मियां शुरू होते ही ऊंचाई की जगहों पर जाकर घास-फूस के छप्पर (छानियां) बनाये जाते हैं। इन छप्परों की जगह का चयन मवेशियों के लिए चारे, पानी और सुरक्षा को देखकर किया जाता था। छप्पर अधिकांशतः ऐसी ही जगहों पर बनाए जाते थे। इस प्रकार छप्पर जाने से दो फायदे होते थे एक तरफ पशुओं को अच्छा और भरपेट चारा मिल जाता था और दूसरा खेती के लिए पर्याप्त मात्र में गोबर की खाद। मौसम के अनुरूप हवा-पानी का बदलाव मवेशियों और किसानों के लिए काफी मददगार रहता है। हमें बचपन के दिनों की अच्छी याद है कि छानियों में बने खाने का स्वाद इतना स्वादिष्ट होता था कि वो आज भी भूला नहीं हूं। भले ही आज शहरों में कितने अच्छे रेस्टोरेन्ट में खाना खाएं, छानियों में बनी खिचड़ी का स्वाद आज के आधुनिक रेस्टोरेन्ट के खाने के सामने कहीं नहीं टिकता। यह स्वाद सिर्फ खाने की वजह से नहीं, बल्कि वहां की हवा, पानी और कड़ी मेहनत की वजह से था। आज भी रोजी-रोटी की दौड़-धूप के बीच कभी अपना बचपन याद आता है तो सबसे अच्छी यादें अपनी छानियों की आती है। मुझे याद है मेरे वो दोस्त जिनकी छानियां नहीं होती थी, वे अपने मां-बाप से छानियां बनाने की जिद करते थे और हमारे साथ छानियों में आते थे। पलायन और बाजार का असर अब धीरे-धीरे छानियों पर भी पड़ता जा रहा है। इस सन्नाटे में हमारे पुरखों के खेती, पशुपालन और प्रकृति के साथ समन्वय का धागा कहीं टूटता हुआ नजर आ रहा है।

औषधीय गुणों की खान कौणी

पहाड़ी ढ़लानों पर सीढ़ीदार खेतों की मेडों पर लहराती कौंणी की फसल बला की खूबसूरत लगती है। सियार की सुनहरी पूंछ सी खेतों के किनारे हिलती-डुलती रहती है। कौणी विश्व की प्राचीनतम फसलों में से एक है। चीन में तो नवपाषाण काल में भी इसके उपयोग के अवशेष मिलते हैं। यह बाजारा की ही एक प्रजाति है। कौंणी गर्म मौसम में उपजने वाली फसल है। इसलिये उत्तराखण्ड में इसकी खेती ज्यादातर धान के साथ ही की जाती है। इसको धान व झंगोरा के साथ खेतों में बोया जाता है। धान के खेतों के किनारे-किनारे कौणी और झंगोरा बोया जाता है। कोणी की जड़े काफी मजबूत और मिट्टी को बांधे रखती है इसलिये यह खेतों के किनारों को भी टूटने या मिटटी के बहने से रोकती है। इसकी कटाई सितम्बर-अक्टूबर में होती है। उतराखण्ड में इसको खीर व भात बनाकर खाया जाता है। कौणी की खीर और कौणी का बुखणा किसी दौर में बहुत प्रचलित था। इसका खाजा कटाई के दौरान ही भूनकर तैयार किया जाता है। लेकिन विकास और आधुनिकता की दौड़ ने पहाड़ के रहवासियों ने इसको मुख्य खाने से किनारे कर लिया है। इसमें डाइबिटिज के रोगियों के लिये बहुत उपयुक्त माना जाता है। इस वजह से भी धीरे-धीरे बाजार में इसकी मांग बढ़ रही है। इसके बिस्कुट, लड्डू इडली-डोसा और मिठाइयां काफी पसंद की जा रही है। इसके अलावा ब्रेड, नूडल्स, चिप्स तथा बेबी फूड, बीयर, एल्कोहल तथा सिरका बनाने में भी प्रयुक्त किया जा रहा है। सुगर के मरीजों के लिये यह वरदान जैसा है। इससे तमाम बिमारियों में होने वाली थकान से मुक्ति मिलती है। कितनी अजीब बात है कि पौष्टिकता और औषधीय गुणों के बावजूद कौंणी आज उत्तराखण्ड में विलुप्ति के कगार पर पहुंच चुका है।

Donate Plants